लेख को हिन्दी के सभी छात्र पढ़ें। हिन्दी साहित्य के इतिहास में 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के मध्य के काल को आदिकाल/वीरगाथा काल/वीरकाल कहा गया। आदिकाल में मुख्यतः नाथ/सिद्ध साहित्य, जैन साहित्य, चारणी साहित्य और प्रकीर्णक हैं। चारण, ब्रह्मभट्ट और बंदीजन कवि प्रायः दरबारी कवि थे जो आश्रयदाता राजाओं की अतिरंजित प्रशंसा करते थे। श्रंगार और वीर उनके प्रमुख रस थे।
प्रख्यात रचनाकार चंदबरदाई, दलपति, नरपति नाल्ह, जगनिक आदि रहे। महत्वपूर्ण काव्य पृथ्वीराज रासो है।
हिन्दी साहित्य में आदिकाल विविध साहित्यिक प्रवृत्तियों के विकास का काल है जिसमें साहित्यिक प्रवृतियां निर्मित हो रही थीं और भाषा एक नया रूप ले रही थी। आदिकाल को भाषा का सन्धिकाल कहते हैं। आदिकाल की परम्परा में वीरगाथाओं की प्रमुखता रही है।
राजनैतिक परिस्थितियों के आधार पर यह कालखण्ड युद्ध, संघर्ष और अशान्ति से ग्रस्त रहा। राजाओं की संकुचित मानसिकता, अराजकता, गृह कलह, विद्रोह एवं युद्ध के अत्यंत दूषित वातावरण में जनता असन्तोष, क्षोभ और भ्रम से ग्रसित थी। आदिकालीन साहित्य में इसी मानसिकता के अनुरूप खंडन मंडन, हठयोग, वीरता और श्रृंगार परक रचनाओं को देखा जा सकता है।
आदिकाल के बाद के युग को पूर्व मध्यकाल/भक्ति काल कहा गया। ये हिन्दी काव्य साहित्य का स्वर्णकाल है जिसमें आदिकाल के असंतोष, क्षोभ एवं भ्रम से ग्रसित मन को ईश्वर की ओर एकाग्र कर सुख और शान्ति की स्थापना का प्रादुर्भाव हुआ। भक्तिकाल में सगुण और निर्गुण भक्ति की चार प्रमुख काव्यधाराएं मिलती हैं।
भक्तिकाल के प्रमुख कवि कबीरदास, संत शिरोमणि रविदास, तुलसीदास, सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानन्द दास, कुम्भनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, तितहरिवंश, गजाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास मदनमोहन, श्रीभट्ट व्यास जी, रसखान, रहीमदास और चैतन्य महाप्रभु हैं।
भक्तिकालीन काव्य सर्वश्रेष्ठ काव्य है। परमात्मा की भक्ति का पावन संदेश देने वाला यह काव्य साहित्य की अमूल्य निधि है।
हिन्दी साहित्य में 16वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के मध्य के काल को उत्तर मध्यकाल/रीतिकाल कहते हैं जिसमें श्रृंगार परक रचनाओं का आधिक्य है, जिसका मुख्य कारण तत्कालीन परिवेश, राजा, नवाब और सामंतवादी लोगों का वर्चस्व है। कवियों पर जीविकोपार्जन और आश्रयदाताओं का आधिपत्य रहा है।
रीतिकाल में मुग़ल शासन पतन की ओर अग्रसर था। सामंतवादी प्रवृत्ति का बोलबाला था। निर्धन जनता पिसी जा रही थी, उच्च वर्ग विलास के उपकरणों के संचय और सुरा सुन्दरी में लीन था। रीतिकालीन कवियों में सामंतों की विलासवृति को तुष्ट करने के लिए श्रृंगार प्रधान रचनाओं की होड़ लगी थी। यद्यपि सामाजिक स्थितियाँ अत्यंत दयनीय थीं, यह काल कला और साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा है।
रीतिकालीन साहित्य को प्रमुख रूप से तीन वर्गों में विभाजित किया गया है।
रीतिबद्ध काव्य (लक्षण काव्य) जिसमें काव्यांगों के लक्षण के साथ साथ उदाहरण एवं व्याख्या की परिपाटी को अपनाया गया है। प्रमुख भाषा ब्रज थी और प्रमुख कवि चिंतामणि, केशवदास, मतिराम, भिखारीदास, भूषण, पद्माकर, देव और ग्वाल हैं।
रीतिसिद्ध काव्य (लक्ष्य काव्य) जिसमें लक्षण, उदाहरण और काव्यांगों की समझ के बावजूद भी काव्यांगों के लक्षणों को न लिखकर स्वतंत्र रचना की। कवियों ने भावपक्ष और कलापक्ष पर बल दिया। प्रमुख कवि बिहारी, रसनिधि, नृपशम्भू, नेवाज और सेनापति हैं।
रीतिमुक्त काव्य (स्वच्छन्द काव्य) जिसमे ऐसे कवि हैं जिन्होंने काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के आधार पर रचनाएं नहीं की। शास्त्रीय पद्धति से जुड़े होने के बावजूद भी लोक रुचियों और वियोग श्रृंगार को अपनी रचनाओं का आधार बनाया। प्रमुख कवि घनानंद, ठाकुर, आलम, बोधा और द्विजदेव हैं।
आधुनिक काल (1850ईo से अद्यतन) में हिन्दी साहित्य में अनेक परिवर्तन हुए। भारत में स्वतंत्रता संग्राम, स्वतंत्रता, जनसंचार के विभिन्न संसाधनों का विकास, रेडियो, टीवी, समाचार पत्रों और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का हर घर का हिस्सा बनना, गतिविधियों और परिस्थितियों का पूरा प्रभाव आधुनिक साहित्य में परिलक्षित होने लगा। आधुनिक काल में अनेक विचारधाराओं का प्रखर विकास हुआ। काव्य में इसे छायावादी युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग और साठोत्तरी कविता के नाम से जाना गया। छायावाद से पूर्व के समय को भारतेंदु युग और द्विवेदी युग में विभाजित किया गया।
भारतेन्दु युग (1850 ईo से 1900 ईo तक) की कविताओं में प्राचीन एवं नवीन भावों का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। भक्तिकाल एवं रीतिकाल की परंपराओं के साथ साथ आधुनिक नूतन विचार एवं भावों के साथ साथ भक्ति, श्रृंगार, देशभक्ति एवं सामाजिक समस्याओं की ओर अग्रसर होती हुई कविताओं की रचनाएं हुईं जिनमें भाषा खड़ी बोली की ओर अग्रसर होती हुई दिखी। प्रमुख कव भार्तेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', राधाचरण गोस्वामी और अम्बिका दत्त व्यास हैं।
द्विवेदी युग (1900 ई० से 1920 ईo तक) में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से ब्रजभाषा काव्य से हटती गई और खड़ी बोली उसका स्थान ले चुकी थी। आदर्शवाद का बोलबाला रहा। भारत का उज्ज्वल अतीत, देश-भक्ति, सामाजिक सुधार, स्वभाषा-प्रेम आदि कविता के मुख्य विषय थे। नीतिवादी विचारधारा के कारण श्रृंगार का वर्णन मर्यादित हो गया। कथा-काव्य का विकास इस युग की विशेषता है। भाषा खुरदरी और सरल रही। मधुरता एवं सरलता के गुण अभी खड़ी-बोली में आ नहीं पाए थे। इस युग के प्रमुख कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', रामचरित उपध्याय, जगन्नाथ दास रत्नाकर, गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही', श्रीधर पाठक, राम नरेश त्रिपाठी, मैथिलीशरण गुप्त, लोचन प्रसाद पाण्डेय और सियारामशरण गुप्त हैं।
छायावादी युग (1920-1936) के दौर में हिंदी में कल्पनापूर्ण स्वछंद और भावुक कविताओं की एक बाढ़ आई। यह यूरोप के रोमांटिसिज़्म से प्रभावित थी। भाव, शैली, छंद, अलंकार सब दृष्टियों से यह नवीन था। भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद लोकप्रिय हुई इस कविता को आलोचकों ने छायावादी युग का नाम दिया। छायावादी कवियों की उस समय भारी कटु आलोचना हुई परंतु आज यह निर्विवाद तथ्य है कि आधुनिक हिंदी कविता की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि इसी समय के कवियों द्वारा हुई। जयशंकर प्रसाद, निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा इस युग के प्रधान कवि के रूप में जाने जाते हैं।
उत्तर-छायावाद युग (1936-1943) भारतीय राजनीति में भारी उथल-पुथल का काल रहा है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय, कई विचारधाराओं और आन्दोलनों का प्रभाव इस काल की कविता पर पड़ा। द्वितीय विश्वयुद्ध के भयावह परिणामों के प्रभाव से भी इस काल की कविता बहुत हद तक प्रभावित है। निष्कर्षत:राष्ट्रवादी, गांधीवादी, विप्लववादी, प्रगतिवादी, यथार्थवादी, हालावादी आदि विविध प्रकार की कवितायें इस काल में लिखी गई। इस काल के प्रमुख कवि माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारी सिंह 'दिनकर', हरिवंश राय 'बच्चन', भगवतीचरण वर्मा, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', शिवमंगल सिंह 'सुमन', नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और रांगेयराघव हैं।
प्रगतिवादी युग (1936) छायावादी काव्य बुद्धिजीवियों के मध्य ही रहा। जन-जन की वाणी यह नहीं बन सका। सामाजिक एवं राजनैतिक आंदोलनों का सीधा प्रभाव इस युग की कविता पर सामान्यतः नहीं पड़ा। संसार में समाजवादी विचारधारा तेज़ी से फैल रही थी। सर्वहारा वर्ग के शोषण के विरुध्द जनमत तैयार होने लगा। इसकी प्रतिच्छाया हिंदी कविता पर भी पड़ी और हिंदी साहित्य के प्रगतिवादी युग का जन्म हुआ। 1930 क़े बाद की हिंदी कविता ऐसी प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित है
1936 में "प्रगतिशील लेखक संघ" के गठन के साथ हिन्दी साहित्य में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित प्रगतिवादी आन्दोलन की शुरुआत हुई .इसका सबसे अधिक दूरगामी प्रभाव हिन्दी आलोचना पर पड़ा। मार्क्सवादी आलोचकों ने हिन्दी साहित्य के समूचे इतिहास को वर्ग-संघर्ष के दॄष्टिकोण से पुनर्मूल्यांकन करने का प्रयास आरंभ किया। प्रगतिवादी कवियों मे नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन के साथ नयी कविता के कवि मुक्तिबोध और शमशेर को भी रखा जाता है।
प्रयोगवाद अर्थात नई कविता का युग (1943-1960) आया। दूसरे विश्वयुध्द के पश्चात संसार भर में घोर निराशा तथा अवसाद की लहर फैल गई। साहित्य पर भी इसका प्रभाव पड़ा। 'अज्ञेय' के संपादन में 1943 में 'तार सप्तक' का प्रकाशन हुआ। तब से हिंदी कविता में प्रयोगवादी युग का जन्म हुआ ऐसी मान्यता है। इसी का विकसित रूप नयी कविता कहलाता है। दुर्बोधता, निराशा, कुंठा, वैयक्तिकता, छंदहीनता के आक्षेप इस कविता पर भी किए गए हैं। वास्तव में नयी कविता नयी रुचि का प्रतिबिंब है। इस धारा के मुख्य कवि अज्ञेय, गिरिजाकुमार माथुर, प्रभाकर माचवे, भारतभूषण अग्रवाल, मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, जगदीश गुप्त, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कुंवर नारायण और केदार नाथ सिंह हैं।
कालांतर में कई सम-विषम परिस्तिथियों व घटनाओ से प्रभावित होते हुए आधुनिक हिंदी खड़ी बोली कविता ने भी अल्प समय में उपलब्धि के उच्च शिखर प्राप्त किया। क्या प्रबंध काव्य, क्या मुक्तक काव्य, दोनों में हिंदी कविता ने सुंदर रचनाएं प्राप्त की हैं। गीति-काव्य के क्षेत्र में भी कई सुंदर रचनाएं हिंदी को मिली हैं। आकार और प्रकार का वैविध्य बरबस हमारा ध्यान आकर्षित करता है। संगीत-रूपक, गीत-नाटय वगैरह क्षेत्रों में भी प्रशंसनीय कार्य हुआ है। कविता के बाह्य एवं अंतरंग रूपों में युगानुरूप जो नये-नये प्रयोग नित्य-प्रति होते रहते हैं, वे हिंदी कविता की जीवनी-शक्ति एवं स्फूर्ति के परिचायक हैं।
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